Alma Ikwal Shayari Collection
Khudi Ko Kar Buland Itna Ki Har Taqdeer Se Pahle,
Khuda Bande Se Khud Poochhe Bata Teri Raza Kya Hai.
ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले,
ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है।
Sitaron Se Aage Jahaan Aur Bhi Hain,
Abhi Ishq Ke Imthaan Aur Bhi Hain.
सितारों से आगे जहाँ और भी हैं,
अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी हैं।
माना कि तेरी दीद के क़ाबिल नहीं हूँ मैं,
तू मेरा शौक़ देख मिरा इंतिज़ार देख।
तिरे इश्क़ की इंतिहा चाहता हूँ,
मिरी सादगी देख क्या चाहता हूँ।
तू शाहीं है परवाज़ है काम तेरा,
तिरे सामने आसमाँ और भी हैं।
ख़िर्द-मंदों से क्या पूछूँ कि मेरी इब्तिदा क्या है,
कि मैं इस फ़िक्र में रहता हूँ मेरी इंतिहा क्या है।
मय-ख़ाना-ए-यूरोप के दस्तूर निराले हैं,
लाते हैं सुरूर अव्वल देते हैं शराब आख़िर।
हैं उक़्दा-कुशा ये ख़ार-ए-सहरा,
कम कर गिला-ए-बरहना-पाई।
मिरे जुनूँ ने ज़माने को ख़ूब पहचाना,
वो पैरहन मुझे बख़्शा कि पारा पारा नहीं।
उसे सुब्ह-ए-अज़ल इंकार की जुरअत हुई क्यूँकर,
मुझे मालूम क्या वो राज़-दाँ तेरा है या मेरा।
अज़ाब-ए-दानिश-ए-हाज़िर से बा-ख़बर हूँ मैं,
कि मैं इस आग में डाला गया हूँ मिस्ल-ए-ख़लील।
गेसू-ए-ताबदार को और भी ताबदार कर,
होश ओ ख़िरद शिकार कर क़ल्ब ओ नज़र शिकार कर।
पुराने हैं ये सितारे फ़लक भी फ़र्सूदा,
जहाँ वो चाहिए मुझ को कि हो अभी नौ-ख़ेज़।
जन्नत की ज़िंदगी है जिस की फ़ज़ा में जीना,
मेरा वतन वही है मेरा वतन वही है।
मक़ाम-ए-शौक़ तिरे क़ुदसियों के बस का नहीं,
उन्हीं का काम है ये जिन के हौसले हैं ज़ियाद।
ज़िंदगानी की हक़ीक़त कोहकन के दिल से पूछ,
जू-ए-शीर ओ तेशा ओ संग-ए-गिराँ है ज़िंदगी।
वो हर्फ़-ए-राज़ कि मुझ को सिखा गया है जुनूँ,
ख़ुदा मुझे नफ़स-ए-जिबरईल दे तो कहूँ।
मोहब्बत के लिए दिल ढूँढ कोई टूटने वाला,
ये वो मय है जिसे रखते हैं नाज़ुक आबगीनों में।
ये है ख़ुलासा-ए-इल्म-ए-क़लंदरी कि हयात,
ख़दंग-ए-जस्ता है लेकिन कमाँ से दूर नहीं।
सुल्तानी-ए-जम्हूर का आता है ज़माना,
जो नक़्श-ए-कुहन तुम को नज़र आए मिटा दो।
यही ज़माना-ए-हाज़िर की काएनात है क्या,
दिमाग़ रौशन ओ दिल तीरा ओ निगह बेबाक।
ज़माम-ए-कार अगर मज़दूर के हाथों में हो फिर क्याv
तरीक़-ए-कोहकन में भी वही हीले हैं परवेज़ी।
हाँ दिखा दे ऐ तसव्वुर फिर वो सुब्ह ओ शाम तू,
दौड़ पीछे की तरफ़ ऐ गर्दिश-ए-अय्याम तू।
सितारा क्या मिरी तक़दीर की ख़बर देगा,
वो ख़ुद फ़राख़ी-ए-अफ़्लाक में है ख़्वार ओ ज़ुबूँ।
ज़माना अक़्ल को समझा हुआ है मिशअल-ए-राह,
किसे ख़बर कि जुनूँ भी है साहिब-ए-इदराक।
अक़्ल अय्यार है सौ भेस बदल लेती है,
इश्क़ बेचारा न ज़ाहिद है न मुल्ला न हकीम।
ख़ुदावंदा ये तेरे सादा-दिल बंदे किधर जाएँ,
कि दरवेशी भी अय्यारी है सुल्तानी भी अय्यारी।
ये काएनात अभी ना-तमाम है शायद,
कि आ रही है दमादम सदा-ए-कुन-फ़यकूँ।
फ़िर्क़ा-बंदी है कहीं और कहीं ज़ातें हैं,
क्या ज़माने में पनपने की यही बातें हैं।
जिन्हें मैं ढूँढता था आसमानों में ज़मीनों में,
वो निकले मेरे ज़ुल्मत-ख़ाना-ए-दिल के मकीनों में।
ऋषी के फ़ाक़ों से टूटा न बरहमन का तिलिस्म,
असा न हो तो कलीमी है कार-ए-बे-बुनियाद।
तुर्कों का जिस ने दामन हीरों से भर दिया था,
मेरा वतन वही है मेरा वतन वही है।
मैं ना-ख़ुश-ओ-बे-ज़ार हूँ मरमर की सिलों से,
मेरे लिए मिट्टी का हरम और बना दो।
मिरी निगाह में वो रिंद ही नहीं साक़ी,
जो होशियारी ओ मस्ती में इम्तियाज़ करे।
इसी ख़ता से इताब-ए-मुलूक है मुझ पर,
कि जानता हूँ मआल-ए-सिकंदरी क्या है।
ज़मीर-ए-लाला मय-ए-लाल से हुआ लबरेज़,
इशारा पाते ही सूफ़ी ने तोड़ दी परहेज़।
गुलज़ार-ए-हस्त-ओ-बूद न बेगाना-वार देख,
है देखने की चीज़ इसे बार बार देख।
गुज़र जा अक़्ल से आगे कि ये नूर,
चराग़-ए-राह है मंज़िल नहीं है!
ख़ुदी वो बहर है जिस का कोई किनारा नहीं,
तू आबजू इसे समझा अगर तो चारा नहीं।
समुंदर से मिले प्यासे को शबनम,
बख़ीली है ये रज़्ज़ाक़ी नहीं है।
कभी छोड़ी हुई मंज़िल भी याद आती है राही को,
खटक सी है जो सीने में ग़म-ए-मंज़िल न बन जाए।
कुशादा दस्त-ए-करम जब वो बे-नियाज़ करे,
नियाज़-मंद न क्यूँ आजिज़ी पे नाज़ करे।
सबक़ मिला है ये मेराज-ए-मुस्तफ़ा से मुझे,
कि आलम-ए-बशरीयत की ज़द में है गर्दूं।
एक सरमस्ती ओ हैरत है सरापा तारीक,
एक सरमस्ती ओ हैरत है तमाम आगाही।
कमाल-ए-जोश-ए-जुनूँ में रहा मैं गर्म-ए-तवाफ़,
ख़ुदा का शुक्र सलामत रहा हरम का ग़िलाफ़।
हकीम ओ आरिफ़ ओ सूफ़ी तमाम मस्त-ए-ज़ुहूर,
किसे ख़बर कि तजल्ली है ऐन-ए-मस्तूरी।
फ़ितरत को ख़िरद के रू-ब-रू कर,
तस्ख़ीर-ए-मक़ाम-ए-रंग-ओ-बू कर।
'अत्तार' हो 'रूमी' हो 'राज़ी' हो 'ग़ज़ाली' हो,
कुछ हाथ नहीं आता बे-आह-ए-सहर-गाही।
मोती समझ के शान-ए-करीमी ने चुन लिए,
क़तरे जो थे मिरे अरक़-ए-इंफ़िआ'ल के।
जलाल-ए-पादशाही हो कि जमहूरी तमाशा हो,
जुदा हो दीं सियासत से तो रह जाती है चंगेज़ी।
मुरीद-ए-सादा तो रो रो के हो गया ताइब,
ख़ुदा करे कि मिले शैख़ को भी ये तौफ़ीक़।
तू है मुहीत-ए-बे-कराँ मैं हूँ ज़रा सी आबजू,
या मुझे हम-कनार कर या मुझे बे-कनार कर।
अगर हंगामा-हा-ए-शौक़ से है ला-मकाँ ख़ाली,
ख़ता किस की है या रब ला-मकाँ तेरा है या मेरा।
उट्ठो मिरी दुनिया के ग़रीबों को जगा दो,
काख़-ए-उमारा के दर-ओ-दीवार हिला दो।
निगाह-ए-इश्क़ दिल-ए-ज़िंदा की तलाश में है,
शिकार-ए-मुर्दा सज़ा-वार-ए-शाहबाज़ नहीं।
चमन-ज़ार-ए-मोहब्ब्बत में ख़मोशी मौत है बुलबुल,
यहाँ की ज़िंदगी पाबंदी-ए-रस्म-ए-फ़ुग़ाँ तक है।
किसे ख़बर कि सफ़ीने डुबो चुकी कितने,
फ़क़ीह ओ सूफ़ी ओ शाइर की ना-ख़ुश-अंदेशी।
पास था नाकामी-ए-सय्याद का ऐ हम-सफ़ीर,
वर्ना मैं और उड़ के आता एक दाने के लिए।
ये जन्नत मुबारक रहे ज़ाहिदों को,
कि मैं आप का सामना चाहता हूँ।
मिलेगा मंज़िल-ए-मक़्सूद का उसी को सुराग़,
अँधेरी शब में है चीते की आँख जिस का चराग़।
उरूज-ए-आदम-ए-ख़ाकी से अंजुम सहमे जाते हैं,
कि ये टूटा हुआ तारा मह-ए-कामिल न बन जाए।
हर शय मुसाफ़िर हर चीज़ राही,
क्या चाँद तारे क्या मुर्ग़ ओ माही।
आँख जो कुछ देखती है लब पे आ सकता नहीं,
महव-ए-हैरत हूँ कि दुनिया क्या से क्या हो जाएगी।
जो मैं सर-ब-सज्दा हुआ कभी तो ज़मीं से आने लगी सदा,
तिरा दिल तो है सनम-आश्ना तुझे क्या मिलेगा नमाज़ में।
मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना,
हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा।
ज़ाहिर की आँख से न तमाशा करे कोई,
हो देखना तो दीदा-ए-दिल वा करे कोई।
वजूद-ए-ज़न से है तस्वीर-ए-काएनात में रंग,
इसी के साज़ से है ज़िंदगी का सोज़-ए-दरूँ।
गला तो घोंट दिया अहल-ए-मदरसा ने तिरा,
कहाँ से आए सदा ला इलाह इल-लल्लाह।
जब इश्क़ सिखाता है आदाब-ए-ख़ुद-आगाही,
खुलते हैं ग़ुलामों पर असरार-ए-शहंशाही।
तुझे किताब से मुमकिन नहीं फ़राग़ कि तू,
किताब-ख़्वाँ है मगर साहिब-ए-किताब नहीं।
दिल सोज़ से ख़ाली है निगह पाक नहीं है,
फिर इस में अजब क्या कि तू बेबाक नहीं है।
उमीद-ए-हूर ने सब कुछ सिखा रक्खा है वाइज़ को,
ये हज़रत देखने में सीधे-सादे भोले-भाले हैं।
महीने वस्ल के घड़ियों की सूरत उड़ते जाते हैं,
मगर घड़ियाँ जुदाई की गुज़रती हैं महीनों में।
बे-ख़तर कूद पड़ा आतिश-ए-नमरूद में इश्क़,
अक़्ल है महव-ए-तमाशा-ए-लब-ए-बाम अभी।
कभी ऐ हक़ीक़त-ए-मुंतज़र नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में,
कि हज़ारों सज्दे तड़प रहे हैं मिरी जबीन-ए-नियाज़ में।
तू क़ादिर ओ आदिल है मगर तेरे जहाँ में,
हैं तल्ख़ बहुत बंदा-ए-मज़दूर के औक़ात।
इश्क़ तिरी इंतिहा इश्क़ मिरी इंतिहा,
तू भी अभी ना-तमाम मैं भी अभी ना-तमाम।
हुई न आम जहाँ में कभी हुकूमत-ए-इश्क़,
सबब ये है कि मोहब्बत ज़माना-साज़ नहीं।
मैं तुझ को बताता हूँ तक़दीर-ए-उमम क्या है,
शमशीर-ओ-सिनाँ अव्वल ताऊस-ओ-रुबाब आख़िर।
मन की दौलत हाथ आती है तो फिर जाती नहीं,
तन की दौलत छाँव है आता है धन जाता है धन।
रोज़-ए-हिसाब जब मिरा पेश हो दफ़्तर-ए-अमल,
आप भी शर्मसार हो मुझ को भी शर्मसार कर।
हवा हो ऐसी कि हिन्दोस्ताँ से ऐ 'इक़बाल',
उड़ा के मुझ को ग़ुबार-ए-रह-ए-हिजाज़ करे।
अंदाज़-ए-बयाँ गरचे बहुत शोख़ नहीं है,
शायद कि उतर जाए तिरे दिल में मिरी बात।
निगह बुलंद सुख़न दिल-नवाज़ जाँ पुर-सोज़,
यही है रख़्त-ए-सफ़र मीर-ए-कारवाँ के लिए।
मीर-ए-अरब को आई ठंडी हवा जहाँ से,
मेरा वतन वही है मेरा वतन वही है।
नहीं इस खुली फ़ज़ा में कोई गोशा-ए-फ़राग़त,
ये जहाँ अजब जहाँ है न क़फ़स न आशियाना।
हुए मदफ़ून-ए-दरिया ज़ेर-ए-दरिया तैरने वाले,
तमांचे मौज के खाते थे जो बन कर गुहर निकले।
सौदा-गरी नहीं ये इबादत ख़ुदा की है,
ऐ बे-ख़बर जज़ा की तमन्ना भी छोड़ दे।
न पूछो मुझ से लज़्ज़त ख़ानमाँ-बर्बाद रहने की,
नशेमन सैकड़ों मैं ने बना कर फूँक डाले हैं।
तेरा इमाम बे-हुज़ूर तेरी नमाज़ बे-सुरूर,
ऐसी नमाज़ से गुज़र ऐसे इमाम से गुज़र।
है राम के वजूद पे हिन्दोस्ताँ को नाज़,
अहल-ए-नज़र समझते हैं उस को इमाम-ए-हिंद।
तू ने ये क्या ग़ज़ब किया मुझ को भी फ़ाश कर दिया,
मैं ही तो एक राज़ था सीना-ए-काएनात में।
मुझे रोकेगा तू ऐ नाख़ुदा क्या ग़र्क़ होने से,
कि जिन को डूबना है डूब जाते हैं सफ़ीनों में।
आईन-ए-जवाँ-मर्दां हक़-गोई ओ बे-बाकी,
अल्लाह के शेरों को आती नहीं रूबाही।
कभी हम से कभी ग़ैरों से शनासाई है,
बात कहने की नहीं तू भी तो हरजाई है।
यक़ीं मोहकम अमल पैहम मोहब्बत फ़ातेह-ए-आलम,
जिहाद-ए-ज़िंदगानी में हैं ये मर्दों की शमशीरें।
अनोखी वज़्अ' है सारे ज़माने से निराले हैं,
ये आशिक़ कौन सी बस्ती के या-रब रहने वाले हैं।
भरी बज़्म में राज़ की बात कह दी,
बड़ा बे-अदब हूँ सज़ा चाहता हूँ।
बाग़-ए-बहिश्त से मुझे हुक्म-ए-सफ़र दिया था क्यूँ,
कार-ए-जहाँ दराज़ है अब मिरा इंतिज़ार कर।
यूँ तो सय्यद भी हो मिर्ज़ा भी हो अफ़्ग़ान भी हो,
तुम सभी कुछ हो बताओ तो मुसलमान भी हो।
इश्क़ भी हो हिजाब में हुस्न भी हो हिजाब में,
या तो ख़ुद आश्कार हो या मुझे आश्कार कर।
उक़ाबी रूह जब बेदार होती है जवानों में,
नज़र आती है उन को अपनी मंज़िल आसमानों में।
सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा,
हम बुलबुलें हैं इस की ये गुलसिताँ हमारा।
बातिल से दबने वाले ऐ आसमाँ नहीं हम,
सौ बार कर चुका है तू इम्तिहाँ हमारा।
तिरे आज़ाद बंदों की न ये दुनिया न वो दुनिया,
यहाँ मरने की पाबंदी वहाँ जीने की पाबंदी।
जम्हूरियत इक तर्ज़-ए-हुकूमत है कि जिस में,
बंदों को गिना करते हैं तौला नहीं करते।
अक़्ल को तन्क़ीद से फ़ुर्सत नहीं,
इश्क़ पर आमाल की बुनियाद रख।
तमन्ना दर्द-ए-दिल की हो तो कर ख़िदमत फ़क़ीरों की,
नहीं मिलता ये गौहर बादशाहों के ख़ज़ीनों में।
नहीं है ना-उमीद 'इक़बाल' अपनी किश्त-ए-वीराँ से,
ज़रा नम हो तो ये मिट्टी बहुत ज़रख़ेज़ है साक़ी।
वतन की फ़िक्र कर नादाँ मुसीबत आने वाली है,
तिरी बर्बादियों के मशवरे हैं आसमानों में।
जिस खेत से दहक़ाँ को मयस्सर नहीं रोज़ी,
उस खेत के हर ख़ोशा-ए-गंदुम को जला दो।
मस्जिद तो बना दी शब भर में ईमाँ की हरारत वालों ने,
मन अपना पुराना पापी है बरसों में नमाज़ी बन न सका।
न समझोगे तो मिट जाओगे ऐ हिन्दोस्ताँ वालो,
तुम्हारी दास्ताँ तक भी न होगी दास्तानों में।
ढूँडता फिरता हूँ मैं 'इक़बाल' अपने आप को,
आप ही गोया मुसाफ़िर आप ही मंज़िल हूँ मैं।
अमल से ज़िंदगी बनती है जन्नत भी जहन्नम भी,
ये ख़ाकी अपनी फ़ितरत में न नूरी है न नारी है।
बुतों से तुझ को उमीदें ख़ुदा से नौमीदी,
मुझे बता तो सही और काफ़िरी क्या है।
हया नहीं है ज़माने की आँख में बाक़ी,
ख़ुदा करे कि जवानी तिरी रहे बे-दाग़।
हरम-ए-पाक भी अल्लाह भी क़ुरआन भी एक,
कुछ बड़ी बात थी होते जो मुसलमान भी एक।
ग़ुलामी में न काम आती हैं शमशीरें न तदबीरें,
जो हो ज़ौक़-ए-यक़ीं पैदा तो कट जाती हैं ज़ंजीरें।
ऐ ताइर-ए-लाहूती उस रिज़्क़ से मौत अच्छी,
जिस रिज़्क़ से आती हो परवाज़ में कोताही।
सौ सौ उमीदें बंधती है इक इक निगाह पर,
मुझ को न ऐसे प्यार से देखा करे कोई।
नशा पिला के गिराना तो सब को आता है,
मज़ा तो तब है कि गिरतों को थाम ले साक़ी।
हज़ारों साल नर्गिस अपनी बे-नूरी पे रोती है,
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदा-वर पैदा।
दुनिया की महफ़िलों से उकता गया हूँ या रब,
क्या लुत्फ़ अंजुमन का जब दिल ही बुझ गया हो।
फ़क़त निगाह से होता है फ़ैसला दिल का,
न हो निगाह में शोख़ी तो दिलबरी क्या है।
अपने मन में डूब कर पा जा सुराग़-ए-ज़ि़ंदगी,
तू अगर मेरा नहीं बनता न बन अपना तो बन।
अच्छा है दिल के साथ रहे पासबान-ए-अक़्ल,
लेकिन कभी कभी इसे तन्हा भी छोड़ दे।
इल्म में भी सुरूर है लेकिन,
ये वो जन्नत है जिस में हूर नहीं।
दिल से जो बात निकलती है असर रखती है,
पर नहीं ताक़त-ए-परवाज़ मगर रखती है।
नहीं तेरा नशेमन क़स्र-ए-सुल्तानी के गुम्बद पर,
तू शाहीं है बसेरा कर पहाड़ों की चटानों में।